मेरी आवाज़ में थोड़ा सच
Thursday, January 30, 2014
Thursday, September 26, 2013
चटपटे अटैक की नटखट कहानी
हमेशा की तरह हम, बस महमानों के जाने का इंतजार कर रहे थे। मैं बड़ी दीदी के कहने पर पहले ही ड्रॉइंग रूम के कई चक्कर लगा चुकी थी। ड्रॉइंग रूम में हंसी ठहाकों का दौर चला रहा था और मैं हर बार एक हारे हुए सिपाही की तरह वापस आकर अपने सरदार (बड़ी दीदी) को बस बुरी खबर ही दे रही थी कि अभी नहीं गए। हम चारों भाई बहनों की पंचायत रसोई में लगी हुई थी कि अचानक किचिन में पानी लेने आई मम्मी ने इस चोरी छुप्पे चल रही सभा को देख लिया। "क्या चल रहा है, सारे यहां क्यों इकट्ठे हो? मुझे सब पता है, सोनिया सब वापस रख दे।" यह क्या, मम्मी तो बिल्ली को ही दूध की रखवाली के लिए छोड़ गई। लेकिन मम्मी के इस वाक्य ने हमारी सारी उम्मीदों पर पानी फेर दिया। बड़ी दीदी का हुक्म आया, सुना ना मम्मी ने क्या कहा, अब कुछ नहीं मिलेगा...।
हम रसोई से निकले और बाहर चैक करने पहुंचे कि इन लोगों का आज हमारे घर से जाने का मन है भी या नहीं। बड़ी दीदी रसोई की खिड़की से, बीच वाली दीदी उसी कमरे में और मैं और छोटा भाई घर के अंदर बाहर घूमघूम कर घर आए मेहमानों के जाने का इंतजार करने लगे। तभी वो अंकल उठे और बोले अच्छा शर्मा जी, अब चलते है, (यही तो सुनना चाहते थे हम) । वो लोग जैसे ही ड्रॉइंग रूम से बाहर निकले तो साथ ही मम्मी पापा भी उन्हें सीऑफ करने गेट तक चले गए। उसके बाद बाहर क्या बातें हुई, हमें नहीं पता क्योंकि हम तो उस अटैक में लगे हुए थे, जिसके लिए इतनी देर से कवायद हो रही थी। मम्मी जैसे ही महमानों को छोड़ कर वापस आई तब तक नमकीन की प्लेट बड़ी दीदी के कब्जे में, मिठाई छोटी दीदी के और मैं और भाई सबसे छोटे थे, तो बस कुछ बिस्किट मुंह में और कुछ हाथ में दबा कर ही संतोष कर लिया था। मम्मी ने एक मीठी सी झिड़की दी और प्लेट में गलती से बचे कुछ बिस्किट और बाकी की खाली प्लेट लेकर बड़बड़ाती हुई अंदर चली गई।यह कोई पहली बार हुई घटना नहीं थी, इसलिए मम्मी का बड़बड़ाना और उसके बाद पापा का आकर हमारा पक्ष लेना, हमारे लिए युनिवर्सल ट्रुथ जैसा हो गया था। ऐसा नहीं था कि घर में बिना मेहमानों के आए ऐसा कुछ खाने को नहीं मिलता था या फिर कोई और बात थी, लेकिन कहते हैं न कि दूसरे की थाली में घी हमेशा ज्यादा नजर आता है, बस हम भी कुछ वैसे ही थे। मन में हमेशा एक इच्छा रहती थी कि मेहमान हैं, इन्हें तो मम्मी स्पेशल ही देंगी। ऐसा न जाने कितनी बार हुआ होगा कि घर आए गेस्ट कभी गेट तक भी नहीं पहुंचे और हम भाई बहन ने मिलकर सारा नाश्ता उड़ा लिया। क्योंकि वापस आते ही मम्मी का कहना तय था कि "चलो, सब उठा कर वापस रख दो, कोई न कोई आता रहता है काम आएगा।" कई सालों से हम मेहमानों के नाश्ते की डकैती करते करते इतने एक्सपर्ट हो गए थे कि अब तो डर ही खत्म हो गया था। लेकिन उस दिन की घटना को चाहकर भी भुलाया नहीं जा सकता।
उस दिन भी कुछ ऐसा ही हुआ, मेहमान घर में आए हुए थे और घर से बाहर खेलते मैं और मेरा भाई यह भनक पड़ते ही घर वापस आ गए थे। देखा कि टेबल कुछ ज्यादा ही सजी हुई है। हमारी खुशी का ठिकाना हीं नहीं था, तभी वो पल आ ही गया, जिसका हमें इंतजार था। "अच्छा तो अब हम चलते हैं, दीपा बेटे इधर आओ, बड़ी प्यारी बच्ची है" और कुछ ऐसा ही कह कर अंकल उठ कर चल दिए। अंकल गेट तक पहुंचे भी नहीं थे कि बड़ी दीदी ने मम्मी का डर दिखाते हुए मिठाई की प्लेट हथियाली थी। बड़ी दीदी के मुंह में मिठाई और हम सब हाथ और मुंह भर कर नमकीन निपटाने में लगे हुए थे। मेरे एक हाथ में सोनपपड़ी का पीस और मुंह में नमकीन भरी हुई थी क्योंकि जब चार लुटेरे खड़े हों, तो सामान छोड़ने का रिस्क कौन लेता। तभी अचानक वो अंकल वापस आ गए और उन्होंने हमें देखते ही कहा, "अरे मैं अपने स्कूटर की चाबी भूल गया था... " हमारी हालत वो थी कि काटो तो खून नहीं। सामने साक्षात वहीं अंकल खड़े थे जिनके हिस्से का नाश्ता हम बुरी तरह मुंह में ठूंस कर खड़े थे और पीछे खड़ी मम्मी का चेहरा हमें अंकल के जाने के बाद की पूरी कहानी बता रहा था। दोनों दीदियां चुपचाप अंदर सरक ली। ऐसे में मुझे ही उन्हें इशारा कर के बताना पड़ा कि टेबल पर पड़े नमकीन के दानों के बीच आपकी चाबी है। उसी टेबल पर, जिसपर आपका नाश्ता भी था, वही नाश्ता जो इस वक्त हमारे मुंह में आधा भरा और थोड़ा हमारे हाथों में है। वहीं नाश्ता जिसके लिए आपके जाने के बाद आज मम्मी हमारी क्लास लेने वाली है। अंकल ने हमारी हालत जैसे भांप ली और वहीं खड़े होकर जोर से हंसने लगे। मम्मी की तरफ मुड़ कर बोले, बच्चे हैं और बच्चे तो सारे एक जैसे होते हैं। हमारे दोनों भी कम थोड़े ही हैं... और यही कहते हुए और मम्मी के गुस्से पर अपने बच्चों के भी ऐसे ही होने का मरहम लगाते हुए वह बाहर चले गए। थोड़ी देर तक मम्मी पापा और अंकल बाहर बात करते रहे, और हम चारों किसी तरह घर साफ कर, टीवी की आवाज एकदम कर कर, पढ़ने की एक्टिंग कर के मम्मी के गुस्से से बचने की कोशिश करने लगे। मम्मी अंदर आई लेकिन वैसा कुछ नहीं हुआ जिसके डर से हम भाई बहन मरे जा रहे थे। स्थिति धीरे धीरे खुद ब खुद सामान्य हो गई।
लेकिन ऐसा नहीं है कि इस घटना के बाद हमने मेहमानों के हक वाले नाश्ते पर अटैक करना छोड़ दिया और हम सब बेहद शरीफ बन गए। हां, उस दिन के बाद से हमने सर्तकता की पॉलिसी आपना ली। उसके बाद जैसे ही कोई मेहमान उठ कर जाता तो हम चारों में से एक की ड्यूटी ड्रॉइंग रूम के गेट पर यह देखने की लगा दी जाती कि कहीं कोई वापस तो अपनी चाबी लेने नहीं आ रहा है...
Saturday, August 24, 2013
साड्डी दिल्ली से आमची मुंबई, आबरू हर लुटती जगह है
साड्डी दिल्ली से आमची मुंबई, आबरू हर लुटती जगह है
17 नवंबर, 2012 यही तारीख थी वो... । जिस अखबार में कम कारती थी, इस दिन उसकी सालगिरह थी। न जाने क्यों न चाहते हुए भी यह दिन कुछ अनोखा सा लग रहा था। आफिस पहुंची तो रोज की तरह जाते ही खबरों की खोज खबर लेने में लग गई। तभी हमारे क्राइम रिपोर्टर ने बताया कि राजधानी में कल रात चलती बस में एक लड़की के साथ गैंगरेप हुआ है। खबर पहले पेज पर लगी, वो भी लीड बन कर। शायद अखबार की दुनिया में बलात्कार, हत्या जैसे अपराध सुनने और उन्हें दो कॉलम या 6 कॉलम के हिसाब से प्राथमिकता देने की आदत पड़ गई थी, इसलिए यह घटना भी मेरे लिए एक दिन की लीड से ज्यादा नहीं थी। लेकिन धीरे-धीरे चलती बस में एक लड़की केसाथ हुए इस बलात्कार का अंदरूनी सच अपनी परतों से निकलकर बाहर आने लगा। जैसे-जैसे हमारे क्राइम रिपोर्टर और न्यूज चैनल इस बलात्कार की भयावयता बताते गए, यह मेरे अंदर सिरहन पैदा करने लगा...।
अभी मैं दिल्ली में नहीं, मुंबई में एक अखबार में काम करती हूं। दिल्ली छोडऩे के 7 महीने बाद और दिल्ली गैंगरेप के लगभग 9 महीने बाद, आज अचानक हर वह डर, वह खौफ मेरे अंदर फिर से मुंह बांये खड़ा हो गया है, जो उस समय मेरी अंतरआत्मा को झंझोर गया था। 22 अगस्त, 2013 को मुंबई में एक फोटो जर्नलिस्ट के साथ बेहद पॉश इलाके में बलात्कार हुआ। ऐसा नहीं है कि इन 9 महीनों में देश में कहीं बलात्कार नहीं हुए या इस बीच मुझे कभी डर नहीं लगा। लेकिन इन दोनों घटनाओं ने मुझे एहसास करा दिया कि मीलों की दूरी नाप कर और साड्डी दिल्ली से आमची मुंबई पहुंचने तक के इस सफर में कुछ भी तो नहीं बदला।मैं चाहे एक डॉक्टरी की पढ़ाई करने वाली निर्भया हूं या फिर कैमरा हाथ में लिए दुनिया की खूबसूरती और बदसूरती को एक नजर से देखने वाली एक फोटोग्राफर जर्नलिस्ट, मेरी आबरू की गारंटी मुझे कुछ भी करने से नहीं मिलेगी। मैं चाहे कितनी ही तरक्की कर लूं, चाहे कितने ही आखर पढ़ लूं, लेकिन मेरी अस्मिता को लूटना उसकेबांय हाथ का काम है। अपने जख्मी होने और अपनी आत्मा नोंचे जाने पर मैं गुस्से से कांप रही हूं, चाहती हूं हर उस दरिंदे को जमीन में जिंदा गाढ़ दूं। नहीं, बल्कि उसे भी उतना ही दर्द और जिल्लत दूं, जितनी मुझे उसने दी है, लेकिन मेरे इस गुस्से को दरकिनार करते हुए मुझे सांत्वना के बजाए पूछा जाता है, कपड़े ही ऐसे पहने होंगे, या अकेले करने क्या गई थी ऐसी सूनसान जगह? एक बाबा तो मुझे यहां तका सलाह दे दी, कि उनके आगे हाथ जोड़ कर कहती कि मैं आपकी धर्म बहन हूं, मुझे माफ कर दो...। अगर बात मेरी इज्जत की है तो मैं यह भी करने को तैयार हूं, लेकिन बस एक बात का जवाब दो, क्यों एक औरत के कपड़े पहनने से लेकर उसकेकपड़े उतारने तक का हर फैसला एक मर्द लेता है?
दिल्ली गैंगरेप के बाद, दिल्ली में लोगों का गुस्सा फूट पड़ा और लाखों लोग सड़कों पर उतर आंदोलन कार रहे थे। दूर खड़ी होकर इस आंदोलन के वेग को परखने और समझने की कोशिश कर रही थी, तभी देखा कुछ लोग टीवी का कैमरा देखते ही चिल्ला रहे थे। हर आंदोलन में ऐसा कैमरा आंदोलन करते लोग आपको दिख ही जाएंगे। लेकिन इस हो-हल्ला करती भीड़ और जिंदगी भर लड़कियों पर फबतियां कसने वाले लोगों के अचानका निर्भया के लिए नारे लगाती इस भीड़ में कहीं पीछे एक अधेड़ महिला अपनी बेटी के साथ बैठी थी। मैंने पूछा, आप यहां क्या कर रही हैं, आपके यहां बैठने से कुछ होगा? महिला बोली, मैं नहीं जानती कि क्या बदलेगा। लेकिन इस घटना के बाद मुझे बहुत गुस्सा और चिंता है अपनी बेटी को लेकर। मैं यहां हूं, ताकि अपनी बेटी से नजरें मिला सकूं। आगे जा कर उसे कह सकूंकि तुझे एक सुरक्षित समाज देने के लिए जो कोशिश हुई उसमें थोड़ा ही सही, पर मेरा भी हिस्सा है। आंखों में आंसू और थोड़ा सा गर्व लिए मैं वहां से हट गई। दिल्ली में गैंगरेप के बाद उबलबे गुस्से और प्रदर्शनों की रिर्पोटिंग के दौरान ऐसे कई वाक्ये मेरे साथ हुए।
देश में मुंबई महिलाओं के लिए सबसे सेफ शहर माना जाता है, जहां देर रात में काम से लौटती महिला से इतनी रात में क्या कर रही थी जैसे सवाल नहीं पूछे जाते। लेकिन इस सेफ सिटी में भी रेप हुआ है, एक भयानक बलात्कार, एक औरत की अस्मिता की दिन दहाड़े लूट। शहर कोई भी हो, बस इमारतें छोटी और बड़ी होती हैं लेकिन मानसिकता में रत्तीभर बदलाव नहीं है। आखिर ऐसी कौनसी छड़ी घुमायु कि मेरे लिए यह समाज सुरक्षित हो जाए? ऐसा क्या करूं कि मेरे सीने से पहले मेरी काबीलियत और मेरी मेहनत पर तेरी नजर जाए? आखिर क्यों मेरे कपड़े चीरने से ही तेरी मर्दानगी का दंभ संतुष्ट हो पाता है? क्या तेरी भोग विलासिता की कीमत हमेशा मेरे सपने, मेरी आजादी, मेरी इच्छाओं, मेरी जिंदगी और मेरे शरीर को नोंचने से ही परिपूर्ण होगी? और अगर हां, तो पहले अपनी मां का आंचल नोंच जिसने तुझ जैसे दंभी आदमी को जन्म दिया। अपनी बहन के शरीर पर निगाह डाल, जिसे तू घर में बंद कार के उसके सुरक्षित होने की गलतफहमी में जीता है।
दीपिका शर्मा
Wednesday, August 14, 2013
एन्जॉय करें, आज आप स्वतंत्र हैं.…
दीपिका शर्मा
किताबों को चुनने की उधेड़बुन में लगे दादाजी के पास पहुंचते ही नन्हे अबीर ने सवाल दाग दिया, दादाजी, इंडीपेंडेंस की लड़ाई के वक्त आप भी थे? चश्मे के पीछे से छांकती दादाजी की आंखों में जैसे चमक आ गई, बेटा हमने तो वह सारा मंजर देखा है। कितने संघर्ष यानी लड़ाई के बाद हमें यह आजादी मिली है। दादा की यह भाषा, शायद पोते के पल्ले नहीं पड़ी लेकिन तब तक एक और सवाल तैयार था। लेकिन लड़ाई करना तो बुरी बात है न, और आपने आखिर लड़ाई क्यों की थी दादाजी? भोलेपन और समझदारी के इन मिलेजुले सवालों ने दादाजी की बूढ़ी हड्डिïयों को जैसे कंपा कर रख दिया था। सही सवाल तो पूछा था इस नन्हें से बच्चे ने, आखिर लड़ाई क्यों की गई थी।
आजादी की इस 66 वीं सालगिरह पर वक्त की परतों को उघाडऩे का जतन करें तो, हमने इंडीपेनडेंस डे मनाने के लिए एक दिन तो मिला, लेकिन 66 साल पहले जिस मानसिक दरिद्रता और दिवालियापन का हम तब शिकार थे, आज भी उससे कहीं बहुत ज्यादा ऊपर उबर कर नहीं आ सके हैं। हां, फर्क इतना जरूर पड़ा है कि अब यह दिवालियापन कुछ अलग रूप में दिखाई देता है। वैसे आप इन लिखी हुई बातों पर गौर करना चाहे या न चाहें, यह पूरी तरह आपकी इच्छा पर निर्भर करता है, क्योंकि आज तो आप स्वतंत्र हैं...
फ्रीडम इस नथिंग बट ए चांस टू बी बेटर... (आजादी, अपने आप में बेहतर बनने का एक मौका है)। अलबर्ट कामू की कही गई यह लाइन आपके, मेरे और सवा अरब का आंकड़ा पर कर चुके हर भारतीय के मन में सैकड़ों सवाल खड़े करने के लिए काफी है। आजादी बेहतरी का नाम है, विकास का नाम है। हालांकि इस बात में कोई शक नहीं कि देश ने कई मायनों में विकास किया है और प्रगति की उस धारा को कतई नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। लेकिन इस विशाल धारा के कहीं बगल से एक ऐसी नाली भी बह रही है, जो बताती है कि जिन चीजों के लिए हम आज से 70 साल पहले लड़ रहे थे, आज भी बदले हुए रूप में ही सही, समस्याएं वैसी ही इस नाली से रिस रही हैं। लेकिन इस रिसती नाली के बारे में आप ज्यादा न सोचें, क्योंकि भाई आज तो आप स्वतंत्र हैं...
अंग्रेजों, भारत छोड़ो.. क्या यही है आजादी?
पोते के पूछे इस सवाल से दादा थोड़ा सहम जरूर गए, लेकिन हिम्मत नहीं हारी और अबीर को अपनी गोद में लेकर उसे समझाया, बेटा उस वक्त हम पर अंग्रेज राज करते थे। हमें वहीं करना होता था, जो वह कहते थे। औरतों-बच्चों पर जुल्म होते थे, गरीबी थी, भुखमरी थी, भारतीय लोग को ऊंची नौकरियां नहीं मिलती थी, क्योंकि उन पर सिर्फ अंगे्रजों का ही हक था। तो क्या दादाजी सिर्फ अंग्रेजों को देश से भगाने से ही इंडीपेनडेंस मिल गई? यह छोटे से मुंह से निकला एक बहुत बड़ा सवाल था। क्या सारे फ्रीडम फाइटर, सिर्फ अंगे्रजों को भगाने के लिए शहीद हुए थे, सामाजिक बदलाव और मानसिक विकास, इस आजादी का कहीं भी हिस्सा नहीं था। दादाजी बोले, नहीं बेटा ऐसा नहीं है। उस समय हमारे देश में बाल विवाह, विधवा विवाह, भ्रूण हत्या जैसे कई बुराईयां थी। औरतों पर कई तरह के जुल्म होते थे, जिसके लिए भी बहुत लोगों ने काम किया और आज देखों महिलाओं को कितनी आजादी मिली है। लेकिन दादाजी, अगर इतनी आजादी है, तो मम्मी हमेशा दीदी को डांटती क्यों हैं, कि जल्दी घर आओ, यह मत पहनो, यह करो। दीदी कब आजाद होंगी? यह बात कहने के बाद अबीर खूब जोर से हंसा, लेकिन इस नन्हें से अट्टïहास ने फिर से हमारी स्वतंत्रता पर चाटा जड़ दिया। आजादी से पहले भले ही हम विधवा विवाह, बाल विवाह जैसी कुरीतियों से लड़ रहे थे, लेकिन आज भी हालात बहुत ज्यादा कहां बदले हैं। इनकी जगह बलात्कार, घरेलू हिंसा, भू्रण हत्या जैसे घिनौने कामों ने ले ली है। हमारी आजादी की इंतहा देखिए कि बलात्कार के बाद बलात्कारी पर नहीं, शिकार महिला के कपड़ों पर टीका-टिप्पणी की जाती है, क्योंकि हम स्वतंत्र देश के स्वतंत्र नागरिक हैं।
साधू की जात न पूछो, लेकिन...
अच्छा दादा जी, क्या तब भी मम्मी रघु के साथ खेलने पर डांट लगाती थी? अरे पगले, तेरी मम्मी तब थोड़े ही थी और न ही तब रघु था। यह कहकर दादाजी हंसे, लेकिन जैसे ही उन्हें समझ आया कि अबीर ने यह सवाल क्यों पूछा, तो वह सकते में आ गए। दरअसल रघु उनके घर के पास रहने वाला वह बच्चा था, जो जाति के इस पूरे सिस्टम में नीची जाति का माना जाता है। जातिवाद या उससे जुड़े मुद्दे, आजादी के बाद फैली कोई महामारी नहीं है। बल्कि यह तो वह कीड़ा है, जो हमारे समाज को न जाने कब से भीतर ही भीतर खोखला किए जा रहा है। चाहे इंटरकास्ट मैरेज करने वाले जोड़ों की दर्दनाक हत्या हो, या फिर समाज के हर स्तर पर जाति के आधार पर किए जाने वाले भेदभाव, यह दाग ऐसा है जो 66 साल में भी हल्का नहीं पड़ पाया है, लेकिन आप चिंता न करें वैसे भी आजकल तो दाग अच्छे हैं। अब अगर दुनिया के सबसे बड़ा लोकतंत्र में आजादी के 66 सालों बाद भी वोट जाति और धर्म के आधार पर दिए जा रहे हों, तो इसमें बुरा क्या है, भई हम आजाद हैं।
शौक नहीं, भूख बड़ी चीज है...
अपने दादाजी को इतना चुप देख अबीर उन्हें हंसाने के लिए उनके गाल के मस्से के साथ खेलने लगा। दादा जी ने बोला अच्छा, दादा के साथ मस्ती करता है, और दोनों में प्यार भरी हाथापाई होने लगी। अबीर बोला, दादाजी मैं रोज दूध पीता हूं, आप हार जाओगे और अपने दादा के पेट में गुदगुदी करने लगा। तभी अचानक अबीर ने पूछा दादाजी, आप कहते हो दूध पीने से मैं स्ट्रॉंग होता हूं, तो क्या सारे बच्चों को दूध पी कर मेरे जैसे स्ट्रॉंग हो जाते हैं? यह क्या पूछ लिया इस बच्चे ने। अगर आपका बच्चा आपसे यह सवाल पूछे तो क्या आप उसे यह दावे के साथ कह सकते हैं, कि आज देश का हर बच्चा दूध पी कर सोता है। अरे, छोडि़ए दूध को, क्या खाने को भी उन्हें मिल पाता है। कुपोषण, इस देश के माथे पर लगा एक ऐसा कलंक है जो दिन ब दिन गहरा ही होता जा रहा है। लेकिन अरे छोडि़ए, आज 15 अगस्त है, फ्रीडम का दिन और वैसे भी शौक बड़ी चीज है, भूख का क्या। चलिए सेलिबे्रट करते हैं, कुछ पिज्जा वगैरह ऑर्डर करिए, क्योंकि आप स्वतंत्र जो हैं।
स्वतंत्र भारत के बेरोजगार नागरिक
अबीर के यह लगातार सवाल, दादाजी को न जाने क्यों एक लंबी सोच में डाल गए। इस नन्हें से बच्चे के सवालों से पूरी तरह हिल चुके दादाजी, अब थोड़ी देर कुछ सोचना चाहते थे। दादा जी ने अबीर को कुछ डपटने के अंदाज में कहा, चलो अब बहुत खेल लिया केबीसी, अब थोड़ा पढ़ाई वगैरह करो, वही काम आएगी, चलो जाओ। अबीर दादा की गोद से उतरा और मुंह लटकाकर बोला, दादा जी पढ़ कर भी क्या होगा, नौकरी तो लगेगी नहीं। मेरे तो बस 70-80 परसेंट ही माक्र्स आते हैं। यह कहकर अबीर तो कमरे से निकल गया, लेकिन पुरानी अलमारी, कई किताबों और सामान से भरे इस कमरे में अब बस दो ही चीजें थी, एक दम चुपचाप बैठे दादाजी और दूसरे जोर-जोर से चिल्लाते सवाल। सच ही तो है, क्या आज आप अपने 70 से 80 प्रतिशत माक्र्स लाने वाले बच्चे से यह वादा कर सकते हैं कि उसे नौकरी जरूर मिलेगी। शिक्षा के बाजारीकरण, कॉचिंगीकरण और पर्सेंटेजीकरण ने आज पढ़े-लिखे ऐसे बेरोजगार तैयार किए हैं, जो कई डिग्री-डिप्लोमा लेने के बाद सरकारी रोजगार योजनाओं में किसी न किसी तरह कुछ काम पाने की कोशिश में लग रहे हैं।
15 अगस्त की इन सवालों के साथ हुई बोझिल शुरूआत ने दादा जी को झंकझोर कर रख दिया था। आजादी के उस समय को और आज के इस बच्चे के सवालों में तालमेल बैठाने के चक्कर में वह खुद हिल से गए थे। वह अपने दीवान से उठे और बाहर जाकर आसमान देखा। चारों तरफ गाडिय़ां दौड़ रही थी, बच्चे स्कूल जा रहे थे लेकिन आज पीठ पर लदे भारी बस्ते कहीं गायब थे। आसपास कहीं से देश भक्ति के गानों की आवाजें आ रही थी, और तब जाकर दादाजी को विश्वास हुआ, हालात उतने भी बुरे नहीं है जितना मैं सोच रहा था। उन्होंने सुकून की सांस ली और चले गए अपनी चाय पीने। अब आप भी आराम से चाय की चुस्कियों के साथ बाकी की खबरों का आनंद लें, क्योंकि आज छुट्टïी है, और आज तो हम स्वतंत्र हैं।
Tuesday, December 18, 2012
WE, THE PEOPLE OF INDIA... Is we here refers to Women also??? R we really a part of a 5000 year old civilization? Should I proud today, that i born in a country where Women r equivalent to Goddess? Should we ever celebrate Barth of a girl child? my eyes r wet... only because i m a woman OR i m scared about that brutal rap? as a journalist (today's journalist) should i celebrate this big event ( big news) OR as a woman i should tell everybody that i m crying inside and want to kill those bastards for whom we r just a peace of Flash...
Friday, September 21, 2012
मुझे दर्द हो रहा है...
मुझे दर्द हो रहा है, पर क्यों, ये मैं खुद नहीं जानती। बस एक अजीब सी टीस है दिल में। शायद, आज मैं समझ पा रही हूँ की औरत को कमज़ोर क्यों कहा जाता है। एक रिश्ता टूटने की कगार पर है, पर इस अकेले रिश्ते ने मानों मेरी जिन्दगी के अब तक के सारे रिश्ते बेमाने से कर दिए हों। कल अपने कमरे में अकेले बैठी थी। कल पहली बार एसा नहीं हो रहा था, लेकिन न जाने क्यों कल क अकेलेपन ने मुझे पूरी तरह से तोड़ दिया हो। एसा लगा दीवारें मुझे देख कर हंस रही है। बिस्तर पर पड़ा तकिया भी अब मेरे आंसुओं से मनो भीगना न चाहता हो। एक अजीब से दलदल में फंस गई हूँ। क्या मैं स्वार्थी हूँ ??? क्या जिन्दगी से बहुत ज्यादा मांग रही थी मैं ??? या कुछ एसा मांग बैठी, जिसके मैं लायक ही नहीं थी?? आँसूं जेसे आँखों की कोरों में चुप कर कही बैठे है, और हर पल मुझसे दूर जाने के लिए आँखों से निकल कर बाहर आ जाते हैं। इस बहुत बड़े से शहर में, मैं अपने आप को बहुत छोटा महसूस कर रही हूँ। बहुत कुछ है मेरे पास कहने-सुनने को, पर कोई ऐसा नहीं जिसे कह सकूँ।
Friday, February 24, 2012
...पर मैं अकेली हूँ.
कल अचानक ऑफि से आते हुए कई दिनों बाद मुझे पूरा आसमान एक साथ दिखाई दिया... वैसे जाने अनजाने असमान तो मुझे दिख ही जाता था, लेकिन कल काफी दिनों बाद ये एहसास हुआ की कितने दिन हो गए मैं पूरा असमान नहीं देखा. आजकल तो असमान बस कुछ टुकड़ों में या कभी गलती से नजर ऊपर चली जाये तो ही दिखाई देता है. जब असमान की याद आई तो महसूस हुआ की रात में छत पर बैठ कर चाँद देखना मुझे कितना पसंद था. रोज शाम को जैसे ही घर की बिजली जाती ( जब मैं छोटी थी तो घर की बिजली कई बार जाया करती थी.रात को तो हम बच्चे कई बार भगवन से प्रार्थना करते थे की बिजली चली जाये, ताकि पढाई से छुटकारा मिले और हम खेल पाए. उस समय रात में तारों को देखना और छत पर बैठना मेरा शौक हुआ करता था.) मैं छत पर चली जाती. लेकिन अब कई दिन हो गए, मैंने पूरा खुला नीला आसमान ही नहीं देखा.
बड़े शहर की इन ऊँची-ऊँची इमारतों में जैसे कहीं आसमान खो सा गया है. अब रात को चाँद में प्रेमी का चहरा दिखाई नहीं देता क्योकि अब चाँद इन बड़ी इमारतों में से झांकता ही नहीं है. अब मुझे बच्चे गलियों में शोर मचाते हुए दिखाई ही नहीं देते. बहुत दिनों से कई सारी औरतों को अपने घरों के चबूतरों पर बात करते हुए नहीं देखा, क्योकि अब घरो में चबूतरे ही नहीं है. अब तो फ्लेट है जिनमें नीचे वाले की जमीन है तो ऊपर वाले की छत है और बीच वाले का कुछ नहीं...
थोड़ा अजीब सा लगता है ये सब, जब सोचने बैठती हूँ तो, लेकिन में भी तो इसी फ्लैट में रह रही हूँ. जहाँ ना छत मेरी है ना जमीन. बस एक बिस्तर, चूला और कुछ पुरानी सी यादें. मैं मेट्रोसिटी वाली बनाने की कोशिश तो कर रही हूँ, लेकिन अपना चाँद, पूरा आसमान और खुली छत बहुत याद आती है अकेले में, और अजीब बात है की आज कल मैं भीड़ में भी अकली ही रहती हूँ....
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