न जाने क्यों सब कुछ धुंधला - धुंधला सा लगने लग रहा है. बहुत कोशिश की कि शक्ल साफ़ दिखाई दे लेकिन सब बेकार. यकीन मानिये मैंने चेहरा भी धोया पर कुछ साफ़ नहीं हुआ. आखिर क्या कमी थी मेरी कोशिश में कि मैं कुछ भी साफ़ नहीं देख पा रही हूँ ? चारों तरफ बस एक धुंध सी छाई हुई है.
मैंने एक बार फिर कोशिश कि और इस बार चेहरे पर नकाब लगाया. अरे ये क्या मुझे कुछ- कुछ साफ़ दिखने लगा है. मुझे अपने साथ साथ कुछ और भी मुखोटे दिख रहे हैं. लेकिन इस मुखोटे कि मुझे आदत नहीं है.मैं इसके पीछे घुट रही हूँ . लोग भी नहीं चाहते कि मैं ये मुखोटा पहन के उनके सामने आऊ. वो मेरे मुहं से मेरा ये नकली चेहरा खीचं के उतार फ़ेकना चाहते हैं , लेकिन मुझे मेरे असली चेहरे के साथ देखना भी नहीं चाहते. आखिर क्या इलाज है इस दुविधा का? यही सोचते- सोचते मैंने एक बार फिर कोशिश कि और इस बार....
इसबार दूर से एक आवाज आई तू क्यों इस शीशे को साफ़ कर रही है ये दाग शीशे के बाहर नहीं उसके अंदर है....
आइना वही दिखाता है जो सच होता है और आईने को संभालता वह है जिसमें सच बरदाश्त करने की क्षमता होती है.
ReplyDeleteअच्छा लिखा है आपने, शुभकामनाएँ
dhanyvad vidhyarthi ji
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