26 जनवरी, इस दिन को ऐतिहासिक करने का तमगा जैसे ही महिलओं की छाती तक पहुँचा, पुरषों की सत्ता की कमान सँभालने वाले कप्तानों के खिसियाहट भरे अट्टहास सुनाई देने लगे.अखबारों की सुर्खियाँ पढ़ कुछ लोगो ने चुटकियाँ ली.. ' अब तो भैया इन्हीं का राज चलेगा'. दूसरी तरफ से आवाज आई, ' अब तक कोनसा नहीं चलता था, सब के घर में इन्ही का ही तो राज चलता है अब क्यूंकि राजपथ पर सलामी देने, लेने वाली और थाईलैंड की गेस्ट, सब महिला थी इसलिए फ्रंट पेज की खबर बन गई....
ये सब सुन कर समझ नहीं आ रहा इसे क्या कहूँ. घर में बीवी और प्रेमिकाओं के जुल्मों से प्रताड़ित पुरषों की करुण व्यथा, जिसे वह अपने अटहसो के पीछे छुपा रहे हैं. या फिर सालों से केवल पायल की छनकार सुनाने वाले पैरों को जूते की थाप के साथ राजपथ पर पड़ता देख कर खिसियाते उस पुरुष प्रधान समाज के प्रतिनिधियों की चिडचिडाहट का एक रूप, क्यूंकि आज भी औरत उनके लिए बिस्तर गरम करने वाले सामान से ज्यादा कुछ नहीं समझते...
समझना थोडा मुश्किल है क्यूंकि दुनिया भर के मर्दों को सिर्फ इन दो दायरों में बाँटना सही नहीं है... नारी चिंतन करने वाले प्रबुद्ध जन भी इस दुनियां में मूजूद हैं. यहाँ यह बताना भी बेहद जरूरी है की जिन लोगो की बात सुन कर ये विचार मेरे मन में ये विचार कौंधे, वो भी नारी जाती के कोई दुश्मन नहीं हैं. बल्कि भरे समाज में औरतों की इज्जत करने वाले सज्जन पुरुष ही हैं.लेकिन मेरे मन में उठी ये चिंताएं आदमी के इस समाज में चेहरे पर चेहरा लगा कर घूमने की प्रवति से पर हैं.आखिर क्यों एक आदमी अपनी बेटी को राजपथ पर 144 आदमियों की अगुवाई करते हुए देख फूला नहीं समता. लेकिन वही आदमी अपने आफिस में बैठी बॉस को वह बैठने के काबिल ही नहीं समझता.???