Wednesday, February 22, 2012

.... मेरी चिंताएं


26  जनवरी, इस दिन को ऐतिहासिक करने का तमगा जैसे ही महिलओं की छाती तक पहुँचा, पुरषों की सत्ता की कमान सँभालने वाले कप्तानों के खिसियाहट भरे अट्टहास सुनाई देने लगे.अखबारों की सुर्खियाँ पढ़ कुछ लोगो ने चुटकियाँ ली.. ' अब तो भैया इन्हीं का राज चलेगा'. दूसरी तरफ से आवाज आई, ' अब तक कोनसा नहीं चलता था, सब के घर में इन्ही का ही तो राज चलता है अब क्यूंकि राजपथ पर सलामी देने, लेने वाली और थाईलैंड की गेस्ट, सब महिला थी इसलिए फ्रंट पेज की खबर बन गई....
        ये सब सुन कर समझ  नहीं आ रहा इसे क्या कहूँ. घर में बीवी और प्रेमिकाओं के जुल्मों से प्रताड़ित पुरषों की करुण व्यथा, जिसे वह अपने अटहसो के पीछे छुपा रहे हैं. या फिर सालों से केवल पायल की छनकार सुनाने वाले पैरों को जूते की थाप के साथ राजपथ पर पड़ता देख कर खिसियाते उस पुरुष प्रधान समाज के प्रतिनिधियों की चिडचिडाहट का एक रूप, क्यूंकि आज भी औरत उनके लिए बिस्तर गरम करने वाले सामान से ज्यादा कुछ नहीं समझते...
समझना थोडा मुश्किल है क्यूंकि दुनिया भर के मर्दों को सिर्फ इन दो दायरों में बाँटना सही नहीं है... नारी चिंतन करने वाले प्रबुद्ध जन भी इस दुनियां में मूजूद हैं. यहाँ यह बताना भी बेहद जरूरी है की जिन लोगो की बात सुन कर ये विचार मेरे मन में ये विचार कौंधे, वो भी नारी जाती के कोई दुश्मन नहीं हैं. बल्कि भरे समाज में औरतों की इज्जत करने वाले सज्जन पुरुष ही हैं.लेकिन मेरे मन में उठी ये चिंताएं आदमी के इस समाज में चेहरे पर चेहरा लगा कर घूमने की प्रवति से पर हैं.आखिर क्यों एक आदमी अपनी बेटी को राजपथ पर 144 आदमियों की अगुवाई करते हुए देख फूला नहीं समता. लेकिन वही आदमी अपने आफिस में बैठी बॉस को वह बैठने के काबिल ही नहीं समझता.???   

Tuesday, April 5, 2011

                      न जाने क्यों सब कुछ धुंधला - धुंधला सा लगने लग रहा  है. बहुत  कोशिश की कि शक्ल  साफ़ दिखाई दे लेकिन सब बेकार. यकीन मानिये मैंने  चेहरा भी धोया पर कुछ साफ़ नहीं हुआ. आखिर क्या कमी थी मेरी कोशिश में कि मैं कुछ भी साफ़ नहीं देख पा रही हूँ ? चारों तरफ बस एक धुंध सी छाई हुई है.
                           मैंने एक बार फिर कोशिश कि और इस बार चेहरे पर नकाब लगाया. अरे ये क्या मुझे कुछ- कुछ  साफ़ दिखने लगा है. मुझे अपने साथ साथ कुछ और भी मुखोटे दिख रहे हैं. लेकिन इस मुखोटे कि मुझे  आदत नहीं है.मैं इसके पीछे घुट रही हूँ . लोग भी नहीं चाहते कि मैं ये मुखोटा पहन के उनके सामने आऊ. वो मेरे मुहं से मेरा ये नकली चेहरा खीचं के उतार फ़ेकना चाहते हैं , लेकिन मुझे मेरे असली चेहरे के साथ देखना भी नहीं चाहते. आखिर क्या   इलाज है इस दुविधा का?  यही सोचते- सोचते मैंने एक बार  फिर कोशिश कि और इस बार....
                   इसबार दूर से एक आवाज आई  तू  क्यों इस शीशे को साफ़ कर रही है ये दाग शीशे के बाहर  नहीं उसके अंदर है....

Tuesday, March 15, 2011

                        जीवन में हर लम्हें  की अपनी अलग पहचान और अपना अलग वजूद होता है. ये बात अलहदा है की इन पलों के मैंने हर वक्त बदलते रहते है. बचपन में धुप- छाव साथी हुआ करते थे, मिट्टी के घरोंदे हम ऱोज  बनाया करते थे..   तब न धुप चुभती थी और न छाव सहलाती थी. बस एक जुनून होता था आशियाना बनाने का, एक घर सजाने का. तब माथे से टपकता पसीना जब कभी आँखों में चला जाता था तब उसका खारापन आंख्न में  एक आंसू ला देता था. लेकिन वो आंसू कभी रुला नहीं पाता था. बस थोड़ी सी आँखें मसलते और फिर लग जाते चिलचिलाती धूप में अपना घर बनाने...

                             माँ तब घर में सोया करती थी. जब भी करवट लेती तो चूड़ी खनक जाया करती थी. दोड़  जाते थे अलग-अलग दिशाओं में इस डर से की कहीं माँ न आ जाए  ... लेकिन किसी भी दिशा में धूप कम नहीं होती थी. बस कड़कती रहती थी अपने पूरे जोर पे....

                               वक्त गुजरता चला गया और हम इस धूप-छाव के साए में हँसते- खेलते बढे हो गये.  पर न जाने क्यों, अब धूप कुछ चुभने लगी है. अब धूप  की  चिलचिलाहट  सहन नहीं होती. हालाँकि बंद कमरों में  अब पसीने की बूँद माथे से टपकती नहीं, लेकिन फिर भी आँखों में आंसू आ जाते हैं . शायद   अब इन आंसुओ को निकलने के लिए किसी वजह की जरुरत नहीं बची. बचपन की तरह अब भागने के लिए दिशाएं  भी नहीं हैं क्योकि अब  हर देहलीज अनजान जो हो गई है....

Saturday, December 18, 2010

हम बिकते है, हमें खरीद लो...
एक जमाना था जब लोग समाज की सेवा कर  और सद्कर्म से नाम कमाया करते थे . लोग समाजसेवा और परोपकार को ही मानव का सबसे बड़ा धर्म मानते थे लेकिन आज की दुनिया में प्रसिद्धीके मायने बदल चुके है. नीलामी के इस दौर में आप खुद को कितनी भी कीमत पर बेच सकते है क्योकि आज जो दिखता है वही बिकता है. यानी जितना अधिक आप दिखायेगे उतनी ही ऊँची आपकी कीमत लग जायेगी. आज के रिअलिटी शो इस मानव नीलामी में सबसे आगे है. हत्यारे हो, चूर या डाकू हर किसी को यहाँ  अपना हुनर आजमाने का मौका मिलता है. राखी का इन्साफ हो या बिग बॉस , हर अदालत में सिर्फ अश्लीलता ही जीत रही है.
              आप जितना ज्यादा फूहड़ और अभद्र बोल  सकते है आपकी टी आर पी  उतनी ही बढ़ेगी.इस चक्कर में  राखी का इन्साफ हो या बिग बॉस, बस जिस शिद्दत से लोग अपने आप को बेच रहे है वह देखने लायक है... 

Sunday, March 28, 2010

आज पहली बार...


कुछ एसा हुआ है आज पहली बार ,

उसने छोड़ा है अकेला आज पहली बार।


मुझे ना हक़ मिला अपने सवाल रखने का,

न खुद जवाब दिया उसने आज पहली बार।


मेरी चाहत से लेके मेरी पूजा में था वो,

ईश्वर से विश्वास उठा है आज पहली बार।


उससे शुरू होकर उस पर ख़त्म होती थी जिन्दगी,

जीने पर अफ़सोस हुआ है आज पहली बार।


जिसने बनाया दुनिया की हर ख़ुशी के काबिल मुझे,

उसी ने मुझे इतना रुलाया आज पहली बार।

क्युकी उसने छोड़ा है अकेला आज पहली बार.....

Saturday, March 27, 2010

नावाकिफ है तू मेरी हैसियत से ,
अनजान है तू की मेरी बिसात क्या है?

तू क्या जानेगा मुझे ऐ बेखबर
तू आदमी है तेरी औकात क्या है?

तुने कब माना औरत को औरत,
वो तो सिर्फ तेरे बिस्तर की शोभा है।

काश तू जानता उसके अंदर की माँ
पर तू बेटा है तेरी जात क्या है?

Sunday, March 7, 2010

एक और महिला दिवस


दुनिया का सबसे ज्वलंत विषय है 'औरत'। और आज तो सबसे अच्छा मोका है इस विषय पर बात करने का क्योकि आज महिला दिवस जो है। अगर देखा जाए तो औरत है ही क्या एक विषय से ज्यादा? आये दिन इसपर संगोष्ठिया होती है, सम्मलेन होते हैं, लेकिन परिस्थितियां वहीं की वहीं। इन संगोष्ठियों ने आखिर औरत को क्या दिया? एक लड़की के पैदा होने पर परिवार में मातम छा जाता है लेकिन क्यों हम भूल जाते है की इस परिवार को एक रूप देनेवाली भी एक औरत ही है। क्या आधिकारो की बात करे इस समाज में जहाँ एक औरत को जीने का भी आधिकार भी नहीं है।
इस वसुंधरा की आधारशिला, यही वो औरत है जिसकी याद में ताजमहल बनता है और यही नारी उस ताज को बनाने वाले मजदूर की बीवी है जो उसके हाथ काटने पर मजदूरी करके अपने पति का पेट पालती है। इसी के लिए रामायण का रण और महाभारत का संग्राम लड़ा गया और यही वह मदर टेरीसा है जिसने मजलूमों को सड़क से उठा के आपने गले लगाया। इससे ज्यादा शर्मनाक और क्या होगा की महिलायों को संसद में ३३% आरक्षण का मुद्दा उछलता तो हर महिला दिवस पर है पर पारित आज तक नहीं हो पाया। हम नहीं मांगते की की हमें पुरुषो से अधिक वरीयता चाहिए लेकिन अपने अस्तित्व को जिन्दा रखने का तो अधिकार हमें मिलना चाहिए। पिता के फेसलों से लेके पति के नाम तक सबकुछ हम पर थोप दिया जाता है। क्यों ना चाहते हुए भी एक औरत को त्याग, संस्कार और समाज के नाम पर पारिवारिक परम्पराओं की वाहक बना दिया जाता है? दुनिया का कोई भी रिश्ता इससे अछूता नहीं। २१वीं सदी के इस योवन काल में भी औरत अग्निकुंदों में फेंकी जाती है। कभी दहेज़ को लेके तो कभी औरत को उपभोग की वास्तु समझकर ये समाज सरेआम कई बार नारी को बदनाम करता आया है। और अगर इन सब दरिंदो से ये बच भी निकलती है तो स्वं इस अबला के पास अपना रोष प्रकट करने का केवल एक माध्यम बचता है , "आत्महत्या" ।
एक सवाल सामने आता है की क्या यही है अंतिम विकल्प? और यदि यही है अस्तित्व को बचने का आखिरी रास्ता, तो क्या आशा रखें इस समाज से इन्साफ की जिसने पग-पग पर नारी को सिर्फ मोत दी है।
इस सारे मंथन के बाद एक बात तो साफ़ हो गई की औरत बड़ा ही रोचक विषय है। और इसे विषय ही बने रहने देना चाहिए। क्योकि वरिष्ठ बुधिजीवों को कुछ तो विषय चाहिए जिसे वो बड़ेबड़े मंचों से बोल सके और औरत से बढ़िया और रोचक विषय और क्या होगा?