Tuesday, April 5, 2011

                      न जाने क्यों सब कुछ धुंधला - धुंधला सा लगने लग रहा  है. बहुत  कोशिश की कि शक्ल  साफ़ दिखाई दे लेकिन सब बेकार. यकीन मानिये मैंने  चेहरा भी धोया पर कुछ साफ़ नहीं हुआ. आखिर क्या कमी थी मेरी कोशिश में कि मैं कुछ भी साफ़ नहीं देख पा रही हूँ ? चारों तरफ बस एक धुंध सी छाई हुई है.
                           मैंने एक बार फिर कोशिश कि और इस बार चेहरे पर नकाब लगाया. अरे ये क्या मुझे कुछ- कुछ  साफ़ दिखने लगा है. मुझे अपने साथ साथ कुछ और भी मुखोटे दिख रहे हैं. लेकिन इस मुखोटे कि मुझे  आदत नहीं है.मैं इसके पीछे घुट रही हूँ . लोग भी नहीं चाहते कि मैं ये मुखोटा पहन के उनके सामने आऊ. वो मेरे मुहं से मेरा ये नकली चेहरा खीचं के उतार फ़ेकना चाहते हैं , लेकिन मुझे मेरे असली चेहरे के साथ देखना भी नहीं चाहते. आखिर क्या   इलाज है इस दुविधा का?  यही सोचते- सोचते मैंने एक बार  फिर कोशिश कि और इस बार....
                   इसबार दूर से एक आवाज आई  तू  क्यों इस शीशे को साफ़ कर रही है ये दाग शीशे के बाहर  नहीं उसके अंदर है....

Tuesday, March 15, 2011

                        जीवन में हर लम्हें  की अपनी अलग पहचान और अपना अलग वजूद होता है. ये बात अलहदा है की इन पलों के मैंने हर वक्त बदलते रहते है. बचपन में धुप- छाव साथी हुआ करते थे, मिट्टी के घरोंदे हम ऱोज  बनाया करते थे..   तब न धुप चुभती थी और न छाव सहलाती थी. बस एक जुनून होता था आशियाना बनाने का, एक घर सजाने का. तब माथे से टपकता पसीना जब कभी आँखों में चला जाता था तब उसका खारापन आंख्न में  एक आंसू ला देता था. लेकिन वो आंसू कभी रुला नहीं पाता था. बस थोड़ी सी आँखें मसलते और फिर लग जाते चिलचिलाती धूप में अपना घर बनाने...

                             माँ तब घर में सोया करती थी. जब भी करवट लेती तो चूड़ी खनक जाया करती थी. दोड़  जाते थे अलग-अलग दिशाओं में इस डर से की कहीं माँ न आ जाए  ... लेकिन किसी भी दिशा में धूप कम नहीं होती थी. बस कड़कती रहती थी अपने पूरे जोर पे....

                               वक्त गुजरता चला गया और हम इस धूप-छाव के साए में हँसते- खेलते बढे हो गये.  पर न जाने क्यों, अब धूप कुछ चुभने लगी है. अब धूप  की  चिलचिलाहट  सहन नहीं होती. हालाँकि बंद कमरों में  अब पसीने की बूँद माथे से टपकती नहीं, लेकिन फिर भी आँखों में आंसू आ जाते हैं . शायद   अब इन आंसुओ को निकलने के लिए किसी वजह की जरुरत नहीं बची. बचपन की तरह अब भागने के लिए दिशाएं  भी नहीं हैं क्योकि अब  हर देहलीज अनजान जो हो गई है....