कल अचानक ऑफि से आते हुए कई दिनों बाद मुझे पूरा आसमान एक साथ दिखाई दिया... वैसे जाने अनजाने असमान तो मुझे दिख ही जाता था, लेकिन कल काफी दिनों बाद ये एहसास हुआ की कितने दिन हो गए मैं पूरा असमान नहीं देखा. आजकल तो असमान बस कुछ टुकड़ों में या कभी गलती से नजर ऊपर चली जाये तो ही दिखाई देता है. जब असमान की याद आई तो महसूस हुआ की रात में छत पर बैठ कर चाँद देखना मुझे कितना पसंद था. रोज शाम को जैसे ही घर की बिजली जाती ( जब मैं छोटी थी तो घर की बिजली कई बार जाया करती थी.रात को तो हम बच्चे कई बार भगवन से प्रार्थना करते थे की बिजली चली जाये, ताकि पढाई से छुटकारा मिले और हम खेल पाए. उस समय रात में तारों को देखना और छत पर बैठना मेरा शौक हुआ करता था.) मैं छत पर चली जाती. लेकिन अब कई दिन हो गए, मैंने पूरा खुला नीला आसमान ही नहीं देखा.
बड़े शहर की इन ऊँची-ऊँची इमारतों में जैसे कहीं आसमान खो सा गया है. अब रात को चाँद में प्रेमी का चहरा दिखाई नहीं देता क्योकि अब चाँद इन बड़ी इमारतों में से झांकता ही नहीं है. अब मुझे बच्चे गलियों में शोर मचाते हुए दिखाई ही नहीं देते. बहुत दिनों से कई सारी औरतों को अपने घरों के चबूतरों पर बात करते हुए नहीं देखा, क्योकि अब घरो में चबूतरे ही नहीं है. अब तो फ्लेट है जिनमें नीचे वाले की जमीन है तो ऊपर वाले की छत है और बीच वाले का कुछ नहीं...
थोड़ा अजीब सा लगता है ये सब, जब सोचने बैठती हूँ तो, लेकिन में भी तो इसी फ्लैट में रह रही हूँ. जहाँ ना छत मेरी है ना जमीन. बस एक बिस्तर, चूला और कुछ पुरानी सी यादें. मैं मेट्रोसिटी वाली बनाने की कोशिश तो कर रही हूँ, लेकिन अपना चाँद, पूरा आसमान और खुली छत बहुत याद आती है अकेले में, और अजीब बात है की आज कल मैं भीड़ में भी अकली ही रहती हूँ....