Tuesday, December 18, 2012
Friday, September 21, 2012
मुझे दर्द हो रहा है...
मुझे दर्द हो रहा है, पर क्यों, ये मैं खुद नहीं जानती। बस एक अजीब सी टीस है दिल में। शायद, आज मैं समझ पा रही हूँ की औरत को कमज़ोर क्यों कहा जाता है। एक रिश्ता टूटने की कगार पर है, पर इस अकेले रिश्ते ने मानों मेरी जिन्दगी के अब तक के सारे रिश्ते बेमाने से कर दिए हों। कल अपने कमरे में अकेले बैठी थी। कल पहली बार एसा नहीं हो रहा था, लेकिन न जाने क्यों कल क अकेलेपन ने मुझे पूरी तरह से तोड़ दिया हो। एसा लगा दीवारें मुझे देख कर हंस रही है। बिस्तर पर पड़ा तकिया भी अब मेरे आंसुओं से मनो भीगना न चाहता हो। एक अजीब से दलदल में फंस गई हूँ। क्या मैं स्वार्थी हूँ ??? क्या जिन्दगी से बहुत ज्यादा मांग रही थी मैं ??? या कुछ एसा मांग बैठी, जिसके मैं लायक ही नहीं थी?? आँसूं जेसे आँखों की कोरों में चुप कर कही बैठे है, और हर पल मुझसे दूर जाने के लिए आँखों से निकल कर बाहर आ जाते हैं। इस बहुत बड़े से शहर में, मैं अपने आप को बहुत छोटा महसूस कर रही हूँ। बहुत कुछ है मेरे पास कहने-सुनने को, पर कोई ऐसा नहीं जिसे कह सकूँ।
Friday, February 24, 2012
...पर मैं अकेली हूँ.
कल अचानक ऑफि से आते हुए कई दिनों बाद मुझे पूरा आसमान एक साथ दिखाई दिया... वैसे जाने अनजाने असमान तो मुझे दिख ही जाता था, लेकिन कल काफी दिनों बाद ये एहसास हुआ की कितने दिन हो गए मैं पूरा असमान नहीं देखा. आजकल तो असमान बस कुछ टुकड़ों में या कभी गलती से नजर ऊपर चली जाये तो ही दिखाई देता है. जब असमान की याद आई तो महसूस हुआ की रात में छत पर बैठ कर चाँद देखना मुझे कितना पसंद था. रोज शाम को जैसे ही घर की बिजली जाती ( जब मैं छोटी थी तो घर की बिजली कई बार जाया करती थी.रात को तो हम बच्चे कई बार भगवन से प्रार्थना करते थे की बिजली चली जाये, ताकि पढाई से छुटकारा मिले और हम खेल पाए. उस समय रात में तारों को देखना और छत पर बैठना मेरा शौक हुआ करता था.) मैं छत पर चली जाती. लेकिन अब कई दिन हो गए, मैंने पूरा खुला नीला आसमान ही नहीं देखा.
बड़े शहर की इन ऊँची-ऊँची इमारतों में जैसे कहीं आसमान खो सा गया है. अब रात को चाँद में प्रेमी का चहरा दिखाई नहीं देता क्योकि अब चाँद इन बड़ी इमारतों में से झांकता ही नहीं है. अब मुझे बच्चे गलियों में शोर मचाते हुए दिखाई ही नहीं देते. बहुत दिनों से कई सारी औरतों को अपने घरों के चबूतरों पर बात करते हुए नहीं देखा, क्योकि अब घरो में चबूतरे ही नहीं है. अब तो फ्लेट है जिनमें नीचे वाले की जमीन है तो ऊपर वाले की छत है और बीच वाले का कुछ नहीं...
थोड़ा अजीब सा लगता है ये सब, जब सोचने बैठती हूँ तो, लेकिन में भी तो इसी फ्लैट में रह रही हूँ. जहाँ ना छत मेरी है ना जमीन. बस एक बिस्तर, चूला और कुछ पुरानी सी यादें. मैं मेट्रोसिटी वाली बनाने की कोशिश तो कर रही हूँ, लेकिन अपना चाँद, पूरा आसमान और खुली छत बहुत याद आती है अकेले में, और अजीब बात है की आज कल मैं भीड़ में भी अकली ही रहती हूँ....
Wednesday, February 22, 2012
.... मेरी चिंताएं
26 जनवरी, इस दिन को ऐतिहासिक करने का तमगा जैसे ही महिलओं की छाती तक पहुँचा, पुरषों की सत्ता की कमान सँभालने वाले कप्तानों के खिसियाहट भरे अट्टहास सुनाई देने लगे.अखबारों की सुर्खियाँ पढ़ कुछ लोगो ने चुटकियाँ ली.. ' अब तो भैया इन्हीं का राज चलेगा'. दूसरी तरफ से आवाज आई, ' अब तक कोनसा नहीं चलता था, सब के घर में इन्ही का ही तो राज चलता है अब क्यूंकि राजपथ पर सलामी देने, लेने वाली और थाईलैंड की गेस्ट, सब महिला थी इसलिए फ्रंट पेज की खबर बन गई....
ये सब सुन कर समझ नहीं आ रहा इसे क्या कहूँ. घर में बीवी और प्रेमिकाओं के जुल्मों से प्रताड़ित पुरषों की करुण व्यथा, जिसे वह अपने अटहसो के पीछे छुपा रहे हैं. या फिर सालों से केवल पायल की छनकार सुनाने वाले पैरों को जूते की थाप के साथ राजपथ पर पड़ता देख कर खिसियाते उस पुरुष प्रधान समाज के प्रतिनिधियों की चिडचिडाहट का एक रूप, क्यूंकि आज भी औरत उनके लिए बिस्तर गरम करने वाले सामान से ज्यादा कुछ नहीं समझते...
समझना थोडा मुश्किल है क्यूंकि दुनिया भर के मर्दों को सिर्फ इन दो दायरों में बाँटना सही नहीं है... नारी चिंतन करने वाले प्रबुद्ध जन भी इस दुनियां में मूजूद हैं. यहाँ यह बताना भी बेहद जरूरी है की जिन लोगो की बात सुन कर ये विचार मेरे मन में ये विचार कौंधे, वो भी नारी जाती के कोई दुश्मन नहीं हैं. बल्कि भरे समाज में औरतों की इज्जत करने वाले सज्जन पुरुष ही हैं.लेकिन मेरे मन में उठी ये चिंताएं आदमी के इस समाज में चेहरे पर चेहरा लगा कर घूमने की प्रवति से पर हैं.आखिर क्यों एक आदमी अपनी बेटी को राजपथ पर 144 आदमियों की अगुवाई करते हुए देख फूला नहीं समता. लेकिन वही आदमी अपने आफिस में बैठी बॉस को वह बैठने के काबिल ही नहीं समझता.???
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