Wednesday, August 14, 2013

एन्जॉय करें, आज आप स्वतंत्र हैं.…


 
दीपिका शर्मा
 किताबों को चुनने की उधेड़बुन में लगे दादाजी के पास पहुंचते ही नन्हे अबीर ने सवाल दाग दिया, दादाजी, इंडीपेंडेंस की लड़ाई के वक्त आप भी थे? चश्मे के पीछे से छांकती दादाजी की आंखों में जैसे चमक आ गई, बेटा हमने तो वह सारा मंजर देखा है। कितने संघर्ष यानी लड़ाई के बाद हमें यह आजादी मिली है। दादा की यह भाषा, शायद पोते के पल्ले नहीं पड़ी लेकिन तब तक एक और सवाल तैयार था। लेकिन लड़ाई करना तो बुरी बात है न, और आपने आखिर लड़ाई क्यों की थी दादाजी? भोलेपन और समझदारी के इन मिलेजुले सवालों ने दादाजी की बूढ़ी हड्डिïयों को जैसे कंपा कर रख दिया था। सही सवाल तो पूछा था इस नन्हें से बच्चे ने, आखिर लड़ाई क्यों की गई थी।
 आजादी की इस 66 वीं सालगिरह पर वक्त की परतों को उघाडऩे का जतन करें तो, हमने इंडीपेनडेंस डे मनाने के लिए एक दिन तो मिला, लेकिन 66 साल पहले जिस मानसिक दरिद्रता और दिवालियापन का हम तब शिकार थे, आज भी उससे कहीं बहुत ज्यादा ऊपर उबर कर नहीं आ सके हैं। हां, फर्क इतना जरूर पड़ा है कि अब यह दिवालियापन कुछ अलग रूप में दिखाई देता है। वैसे आप इन लिखी हुई बातों पर गौर करना चाहे या न चाहें, यह पूरी तरह आपकी इच्छा पर निर्भर करता है, क्योंकि आज तो आप स्वतंत्र हैं...
फ्रीडम इस नथिंग बट ए चांस टू बी बेटर... (आजादी, अपने आप में बेहतर बनने का एक मौका है)। अलबर्ट कामू की कही गई यह लाइन आपके, मेरे और सवा अरब का आंकड़ा पर कर चुके हर भारतीय के मन में सैकड़ों सवाल खड़े करने के लिए काफी है। आजादी बेहतरी का नाम है, विकास का नाम है। हालांकि इस बात में कोई शक नहीं कि देश ने कई मायनों में विकास किया है और प्रगति की उस धारा को कतई नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। लेकिन इस विशाल धारा के कहीं बगल से एक ऐसी नाली भी बह रही है, जो बताती है कि जिन चीजों के लिए हम आज से 70 साल पहले लड़ रहे थे, आज भी बदले हुए रूप में ही सही, समस्याएं वैसी ही इस नाली से रिस रही हैं। लेकिन इस रिसती नाली के बारे में आप ज्यादा न सोचें, क्योंकि भाई आज तो आप स्वतंत्र हैं...
अंग्रेजों, भारत छोड़ो.. क्या यही है आजादी?
पोते के पूछे इस सवाल से दादा थोड़ा सहम जरूर गए, लेकिन हिम्मत नहीं हारी और अबीर को अपनी गोद में लेकर उसे समझाया, बेटा उस वक्त हम पर अंग्रेज राज करते थे। हमें वहीं करना होता था, जो वह कहते थे। औरतों-बच्चों पर जुल्म होते थे, गरीबी थी, भुखमरी थी, भारतीय लोग को ऊंची नौकरियां नहीं मिलती थी, क्योंकि उन पर सिर्फ अंगे्रजों का ही हक था। तो क्या दादाजी सिर्फ अंग्रेजों को देश से भगाने से ही इंडीपेनडेंस मिल गई? यह छोटे से मुंह से निकला एक बहुत बड़ा सवाल था। क्या सारे फ्रीडम फाइटर, सिर्फ अंगे्रजों को भगाने के लिए शहीद हुए थे, सामाजिक बदलाव और मानसिक विकास, इस आजादी का कहीं भी हिस्सा नहीं था। दादाजी बोले, नहीं बेटा ऐसा नहीं है। उस समय हमारे देश में बाल विवाह, विधवा विवाह, भ्रूण हत्या जैसे कई बुराईयां थी। औरतों पर कई तरह के जुल्म होते थे, जिसके लिए भी बहुत लोगों ने काम किया और आज देखों महिलाओं को कितनी आजादी मिली है। लेकिन दादाजी, अगर इतनी आजादी है, तो मम्मी हमेशा दीदी को डांटती क्यों हैं, कि जल्दी घर आओ, यह मत पहनो, यह करो। दीदी कब आजाद होंगी? यह बात कहने के बाद अबीर खूब जोर से हंसा, लेकिन इस नन्हें से अट्टïहास ने फिर से हमारी स्वतंत्रता पर चाटा जड़ दिया। आजादी से पहले भले ही हम विधवा विवाह, बाल विवाह जैसी कुरीतियों से लड़ रहे थे, लेकिन आज भी हालात बहुत ज्यादा कहां बदले हैं। इनकी जगह बलात्कार, घरेलू हिंसा, भू्रण हत्या जैसे घिनौने कामों ने ले ली है। हमारी आजादी की इंतहा देखिए कि बलात्कार के बाद बलात्कारी पर नहीं, शिकार महिला के कपड़ों पर टीका-टिप्पणी की जाती है, क्योंकि हम स्वतंत्र देश के स्वतंत्र नागरिक हैं।
साधू की जात न पूछो, लेकिन...
अच्छा दादा जी, क्या तब भी मम्मी रघु के साथ खेलने पर डांट लगाती थी? अरे पगले, तेरी मम्मी तब थोड़े ही थी और न ही तब रघु था। यह कहकर दादाजी हंसे, लेकिन जैसे ही उन्हें समझ आया कि अबीर ने यह सवाल क्यों पूछा, तो वह सकते में आ गए। दरअसल रघु उनके घर के पास रहने वाला वह बच्चा था, जो जाति के इस पूरे सिस्टम में नीची जाति का माना जाता है। जातिवाद या उससे जुड़े मुद्दे, आजादी के बाद फैली कोई महामारी नहीं है। बल्कि यह तो वह कीड़ा है, जो हमारे समाज को न जाने कब से भीतर ही भीतर खोखला किए जा रहा है। चाहे इंटरकास्ट मैरेज करने वाले जोड़ों की दर्दनाक हत्या हो, या फिर समाज के हर स्तर पर जाति के आधार पर किए जाने वाले भेदभाव, यह दाग ऐसा है जो 66 साल में भी हल्का नहीं पड़ पाया है, लेकिन आप चिंता न करें वैसे भी आजकल तो दाग अच्छे हैं। अब अगर दुनिया के सबसे बड़ा लोकतंत्र में आजादी के 66 सालों बाद भी वोट जाति और धर्म के आधार पर दिए जा रहे हों, तो इसमें बुरा क्या है, भई हम आजाद हैं।
शौक नहीं, भूख बड़ी चीज है...
अपने दादाजी को इतना चुप देख अबीर उन्हें हंसाने के लिए उनके गाल के मस्से के साथ खेलने लगा। दादा जी ने बोला अच्छा, दादा के साथ मस्ती करता है, और दोनों में प्यार भरी हाथापाई होने लगी। अबीर बोला, दादाजी मैं रोज दूध पीता हूं, आप हार जाओगे और अपने दादा के पेट में गुदगुदी करने लगा। तभी अचानक अबीर ने पूछा दादाजी, आप कहते हो दूध पीने से मैं स्ट्रॉंग होता हूं, तो क्या सारे बच्चों को दूध पी कर मेरे जैसे स्ट्रॉंग हो जाते हैं? यह क्या पूछ लिया इस बच्चे ने। अगर आपका बच्चा आपसे यह सवाल पूछे तो क्या आप उसे यह दावे के साथ कह सकते हैं, कि आज देश का हर बच्चा दूध पी कर सोता है। अरे, छोडि़ए दूध को, क्या खाने को भी उन्हें मिल पाता है। कुपोषण, इस देश के माथे पर लगा एक ऐसा कलंक है जो दिन ब दिन गहरा ही होता जा रहा है। लेकिन अरे छोडि़ए, आज 15 अगस्त है, फ्रीडम का दिन और वैसे भी शौक बड़ी चीज है, भूख का क्या। चलिए सेलिबे्रट करते हैं, कुछ पिज्जा वगैरह ऑर्डर करिए, क्योंकि आप स्वतंत्र जो हैं।
स्वतंत्र भारत के बेरोजगार नागरिक
अबीर के यह लगातार सवाल, दादाजी को न जाने क्यों एक लंबी सोच में डाल गए। इस नन्हें से बच्चे के सवालों से पूरी तरह हिल चुके दादाजी, अब थोड़ी देर कुछ सोचना चाहते थे। दादा जी ने अबीर को कुछ डपटने के अंदाज में कहा, चलो अब बहुत खेल लिया केबीसी, अब थोड़ा पढ़ाई वगैरह करो, वही काम आएगी, चलो जाओ। अबीर दादा की गोद से उतरा और मुंह लटकाकर बोला, दादा जी पढ़ कर भी क्या होगा, नौकरी तो लगेगी नहीं। मेरे तो बस 70-80 परसेंट ही माक्र्स आते हैं। यह कहकर अबीर तो कमरे से निकल गया, लेकिन पुरानी अलमारी, कई किताबों और सामान से भरे इस कमरे में अब बस दो ही चीजें थी, एक दम चुपचाप बैठे दादाजी और दूसरे जोर-जोर से चिल्लाते सवाल। सच ही तो है, क्या आज आप अपने 70 से 80 प्रतिशत माक्र्स लाने वाले बच्चे से यह वादा कर सकते हैं कि उसे नौकरी जरूर मिलेगी। शिक्षा के बाजारीकरण, कॉचिंगीकरण और पर्सेंटेजीकरण ने आज पढ़े-लिखे ऐसे बेरोजगार तैयार किए हैं, जो कई डिग्री-डिप्लोमा लेने के बाद सरकारी रोजगार योजनाओं में किसी न किसी तरह कुछ काम पाने की कोशिश में लग रहे हैं।
15 अगस्त की इन सवालों के साथ हुई बोझिल शुरूआत ने दादा जी को झंकझोर कर रख दिया था। आजादी के उस समय को और आज के इस बच्चे के सवालों में तालमेल बैठाने के चक्कर में वह खुद हिल से गए थे। वह अपने दीवान से उठे और बाहर जाकर आसमान देखा। चारों तरफ गाडिय़ां दौड़ रही थी, बच्चे स्कूल जा रहे थे लेकिन आज पीठ पर लदे भारी बस्ते कहीं गायब थे। आसपास कहीं से देश भक्ति के गानों की आवाजें आ रही थी, और तब जाकर दादाजी को विश्वास हुआ, हालात उतने भी बुरे नहीं है जितना मैं सोच रहा था। उन्होंने सुकून की सांस ली और चले गए अपनी चाय पीने। अब आप भी आराम से चाय की चुस्कियों के साथ बाकी की खबरों का आनंद लें, क्योंकि आज छुट्टïी है, और आज तो हम स्वतंत्र हैं।

3 comments:

  1. दीपिका समयाभाव के कारण पूरा तो नहीं पढ़ पाया किन्तु जितना पढ़ा वह आज की समस्या, स्वार्थ लोलुपता को उजागर करता हुआ देश पर एक बहुत बड़ा प्रश्नचिन्ह खड़ा करता आपका यह लेख बहुत ही सुन्दर लगा.
    बधाई

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    1. विद्यार्थी जी, बहुत बहुत धन्यवाद कि आपने समय निकाल कर पढ़ा तो सही। मुसीबत यही है कि इस भागती दौड़ती जिंदगी में समय अभाव के चलते ही हम समझ ही नहीं पाते कि आगे जा रहे हैं या पीछे लुढ़क रहें हैं, बस चल रहे हैं, यह पता है। मेरे लेख का भी मंतव्य बस यही था, कि आखिर स्वतंत्र का औचित्य क्या है। हां, एक बात और कि इस लेख को लिखते वक्त आपकी कविता की वह पक्तियां, बस रह गई औकात एक घंटे कि... मेरे दिमाग में जरूर आई थीं। आप लोगों के साथ के लिए हमेशा आभार।

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  2. दीपिका आप जो भी लिखती हैं मैं उसे पढता हूँ क्योंकि उसमें मुझे काफी हद तक यथार्थ दिखाई देता है. विश्वविद्यालय में आपसे मेरी अधिक बातें तो नहीं हुई हैं कई विषयों पर वैचारिक मतभेद भी हैं किन्तु कुछ मुद्दों पर मैंने आपका और मेरा उद्देश्य एक सा पाया है. व्यस्तता तो है किन्तु अगर आपका लेखन पढ़कर मैं उचित प्रतिक्रिया नहीं दूंगा तो किसी अजनबी से क्या अपेक्षा कर सकते हैं. हम सहपाठी रहे हैं, एक-दूसरे को शायद हम अच्छे से आईना दिखा पाएंगे.
    सतत लिखते रहिये शुभकामनाएं...
    जय लीला बिहारी

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