Saturday, August 24, 2013

साड्डी दिल्ली से आमची मुंबई, आबरू हर लुटती जगह है


साड्डी दिल्ली से आमची मुंबई, आबरू हर लुटती  जगह  है

17 नवंबर, 2012 यही तारीख थी वो... ।  जिस अखबार में कम कारती थी, इस दिन उसकी सालगिरह थी। न जाने क्यों न चाहते हुए भी यह दिन कुछ अनोखा सा लग रहा था। आफिस पहुंची तो रोज की तरह जाते ही खबरों की खोज खबर लेने में लग गई। तभी हमारे क्राइम रिपोर्टर ने बताया कि राजधानी में कल रात चलती बस में एक लड़की के साथ गैंगरेप हुआ है। खबर पहले पेज पर लगी, वो भी लीड बन कर। शायद अखबार की दुनिया में बलात्कार, हत्या जैसे अपराध सुनने और उन्हें दो कॉलम या 6 कॉलम के हिसाब से प्राथमिकता देने की आदत पड़ गई थी, इसलिए यह घटना भी मेरे लिए एक दिन की लीड से ज्यादा नहीं थी। लेकिन धीरे-धीरे चलती बस में एक लड़की केसाथ हुए इस बलात्कार का अंदरूनी सच अपनी परतों से निकलकर बाहर आने लगा। जैसे-जैसे हमारे क्राइम रिपोर्टर और न्यूज चैनल इस बलात्कार की भयावयता बताते गए, यह मेरे अंदर सिरहन पैदा करने लगा...।

 अभी मैं दिल्ली में नहीं, मुंबई में एक अखबार में काम करती हूं। दिल्ली छोडऩे के 7 महीने बाद और दिल्ली गैंगरेप के लगभग 9 महीने बाद, आज अचानक हर वह डर, वह खौफ मेरे अंदर फिर से मुंह बांये खड़ा हो गया है, जो उस समय मेरी अंतरआत्मा को झंझोर गया था। 22 अगस्त, 2013 को मुंबई में एक फोटो जर्नलिस्ट के साथ बेहद पॉश इलाके में बलात्कार हुआ। ऐसा नहीं है कि इन 9 महीनों में देश में कहीं बलात्कार नहीं हुए या इस बीच मुझे कभी डर नहीं लगा। लेकिन इन दोनों घटनाओं ने मुझे एहसास करा दिया कि मीलों की दूरी नाप कर और साड्डी दिल्ली से आमची मुंबई  पहुंचने तक के इस सफर में कुछ भी तो नहीं बदला।

  मैं चाहे एक डॉक्टरी की पढ़ाई करने वाली निर्भया हूं या फिर कैमरा हाथ में लिए दुनिया की खूबसूरती और बदसूरती को एक नजर से देखने वाली एक फोटोग्राफर जर्नलिस्ट, मेरी आबरू की गारंटी मुझे कुछ भी करने से नहीं मिलेगी। मैं चाहे कितनी ही तरक्की कर लूं, चाहे कितने ही आखर पढ़ लूं, लेकिन मेरी अस्मिता को लूटना उसकेबांय हाथ का काम है। अपने जख्मी होने और अपनी आत्मा नोंचे जाने पर मैं गुस्से से कांप रही हूं, चाहती हूं हर उस दरिंदे को जमीन में जिंदा गाढ़ दूं। नहीं, बल्कि उसे भी उतना ही दर्द और  जिल्लत दूं, जितनी मुझे उसने दी है, लेकिन मेरे इस गुस्से को दरकिनार करते हुए मुझे सांत्वना के बजाए पूछा जाता है, कपड़े ही ऐसे पहने होंगे, या अकेले करने क्या गई थी ऐसी सूनसान जगह? एक बाबा तो मुझे यहां तका सलाह दे दी, कि उनके आगे हाथ जोड़ कर कहती कि मैं आपकी धर्म बहन हूं, मुझे माफ कर दो...। अगर बात मेरी इज्जत की है तो मैं यह भी करने को तैयार हूं, लेकिन बस एक बात का जवाब दो, क्यों एक औरत के कपड़े पहनने से लेकर उसकेकपड़े उतारने तक का हर फैसला एक मर्द लेता है?

 दिल्ली गैंगरेप के बाद, दिल्ली में लोगों का गुस्सा फूट पड़ा और लाखों लोग सड़कों पर उतर आंदोलन कार रहे थे। दूर खड़ी होकर इस आंदोलन के वेग को परखने और समझने की कोशिश कर रही थी, तभी देखा कुछ लोग टीवी का कैमरा देखते ही चिल्ला रहे थे। हर आंदोलन में ऐसा कैमरा आंदोलन करते लोग आपको दिख ही जाएंगे।  लेकिन इस हो-हल्ला करती भीड़ और जिंदगी भर लड़कियों पर फबतियां कसने वाले लोगों के अचानका निर्भया के लिए नारे लगाती इस भीड़ में कहीं पीछे एक अधेड़ महिला अपनी बेटी के साथ बैठी थी। मैंने पूछा, आप यहां क्या कर रही हैं, आपके यहां बैठने से कुछ होगा? महिला बोली, मैं नहीं जानती कि क्या बदलेगा। लेकिन इस घटना के बाद मुझे बहुत गुस्सा और चिंता है अपनी बेटी को लेकर। मैं यहां हूं, ताकि अपनी बेटी से नजरें मिला सकूं। आगे जा कर उसे कह सकूंकि तुझे एक सुरक्षित समाज देने के लिए जो कोशिश हुई उसमें थोड़ा ही सही, पर मेरा भी हिस्सा है। आंखों में आंसू और थोड़ा सा गर्व लिए मैं वहां से हट गई। दिल्ली में गैंगरेप के बाद उबलबे गुस्से और प्रदर्शनों की रिर्पोटिंग के दौरान ऐसे कई वाक्ये मेरे साथ हुए।
          देश में मुंबई महिलाओं के लिए सबसे सेफ शहर माना जाता है, जहां देर रात में काम से लौटती महिला से इतनी रात में क्या कर रही थी  जैसे सवाल नहीं पूछे जाते। लेकिन इस सेफ सिटी में भी रेप हुआ है, एक भयानक बलात्कार, एक औरत की अस्मिता की दिन दहाड़े लूट। शहर कोई भी हो, बस इमारतें छोटी और बड़ी होती हैं लेकिन मानसिकता में रत्तीभर बदलाव नहीं है। आखिर ऐसी कौनसी छड़ी घुमायु कि  मेरे लिए यह समाज सुरक्षित हो जाए? ऐसा क्या करूं कि मेरे सीने से पहले मेरी काबीलियत और मेरी मेहनत पर तेरी नजर जाए? आखिर क्यों मेरे कपड़े चीरने से ही तेरी मर्दानगी का दंभ संतुष्ट हो पाता है? क्या तेरी भोग विलासिता की कीमत हमेशा मेरे सपने, मेरी आजादी, मेरी इच्छाओं, मेरी जिंदगी और मेरे शरीर को नोंचने से ही परिपूर्ण होगी? और अगर हां, तो पहले अपनी मां का आंचल नोंच जिसने तुझ जैसे दंभी आदमी को जन्म दिया। अपनी बहन के शरीर पर निगाह डाल, जिसे तू घर में बंद कार के उसके सुरक्षित होने की गलतफहमी में जीता है।
दीपिका शर्मा

5 comments:

  1. mam yeh article padh kar mere rongatey khade ho gaye....It's really a motivating piece of writing.

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  2. मुंबई की घटना के बारे में तुम्हारा ख़्याल आया था मुझे कि तुमने दिल्ली और मुंबई दोनों जगह की घटनाओं को करीब से देखा है.तुम्हारी तकलीफ़ भरी प्रतिक्रिया देखने को मिली. जिसमें गुस्सा है और घूरती नज़रों के ख़िलाफ प्रतिरोध का स्वर भी....लेकिन समाज में ऐसे लोगों की मौजदगी एक सच्चाई है....जो गंदी बस्तियों में नहीं सभ्य समाज की चमचमाती ज़िंदगी में अंधेरे की तरह मौजूद है. य़ह सारा मामला सोच है, माइंड सेट है.....आसानी से नहीं बदलेगा.

    समाज शरीर वाली सोच से ग्रस्त होता जा रहा है.जीवन के हर पहलू में शारीरिक सुख, सुविधा और भोग को बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया जा रहा है. शरीर के इर्द-गिर्द बनते इंद्रजाल के भंवर में फंसे समाज की प्रतिक्रियाओं को संभालना बहुत कठिन हो रहा है. दिल्ली की घटना से देश शर्मशार होता था. मुंबई में महिलाओं की सुरक्षा कोई मुद्दा नहीं था. लेकिन अब मुंबई के पीछे देश तथाकथित रूप से शर्मशा हो रहा है. क्षेत्रीय स्तर पर जिस तरह की ख़बरें आती हैं...उसके आगे तो मुंबई की घटना फीकी पड़ जाती है. लेकिन बड़े शहरों के बहाने होने वाली चर्चा का डर गॉंवों तक पहुंच रहा है. इसके लिए वहां की लड़कियों को कुर्बानी देनी पड़ रही है. उनको लोगों के सवालों के जवाब देने पड़ रहे हैं. लोगों के बीच चर्चाएं हो रही हैं. उनका डर बढ़ रहा है. कुल मिलाकर स्थिति काफी गंभीर है.

    इसका समाधान आसान नहीं है. इसके लिए सिर्फ़ सरकार को दोषी ठहराने से बात नहीं बनेगी, समाज और व्यक्ति के स्तर पर गहराई में उतरें तो जिस तरह की सोच का साम्राज्य सालों से भारतीय समाज के पुरुषों और महिलाओं में भी पनप रहा है....गंभीर स्थिति की तरफ इशारा करता है.

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    1. ब्रिजेश, तुमने बिलकुल ठीक कहा, लेकिन मुसीबत यह है कि सोच और माइंड सेट के नाम पर हम पिछले कई सालों से महिलाओं की लुटती आबरू का खेल देख रहे हैं। यह बात भी सही है कि बड़े शहर की खबरें जल्दी ही सुर्खियां बन जाती हैं। लेकिन मुझे लगता है कि यहां बात क्षेत्र और इलाकों से काफी आगे निकल चुकी है। दर्द हर जगह एक जैसा ही रिस रहा है। वैसे तुम्हारी इतनी बड़ी प्रतिक्रिया पढ़ कर बहुत अच्छा लगा। मेरे लिखने का मंतव्य पूरा हो गया।

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  3. bhut sahi likha deepika... kuchh badle na badle... oshish sabhi ko kerte rahni chahiye..apne apne hisse ki
    _lalit

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