Thursday, September 26, 2013

चटपटे अटैक की नटखट कहानी


हमेशा की तरह हम, बस महमानों के जाने का इंतजार कर रहे थे।  मैं बड़ी दीदी के कहने पर पहले ही ड्रॉइंग रूम के कई चक्कर लगा चुकी थी। ड्रॉइंग रूम में हंसी ठहाकों का दौर चला रहा था और मैं हर बार एक हारे हुए सिपाही की तरह वापस आकर अपने सरदार (बड़ी दीदी) को बस बुरी खबर ही दे रही थी कि अभी नहीं गए। हम चारों भाई बहनों की पंचायत रसोई में लगी हुई थी कि अचानक किचिन में पानी लेने आई मम्मी ने इस चोरी छुप्पे चल रही सभा को देख लिया। "क्या चल रहा है, सारे यहां क्यों इकट्ठे हो? मुझे सब पता है, सोनिया सब वापस रख दे।"  यह क्या, मम्मी तो बिल्ली को ही दूध की रखवाली के लिए छोड़ गई। लेकिन मम्मी के इस वाक्य ने हमारी सारी उम्मीदों पर पानी फेर दिया। बड़ी दीदी का हुक्म आया, सुना ना मम्मी ने क्या कहा, अब कुछ नहीं मिलेगा...।
            हम रसोई से निकले और बाहर चैक करने पहुंचे कि इन लोगों का आज हमारे घर से जाने का मन है भी या नहीं। बड़ी दीदी रसोई की खिड़की से, बीच वाली दीदी उसी कमरे में और मैं और छोटा भाई घर के अंदर बाहर घूमघूम कर घर आए मेहमानों के जाने का इंतजार करने लगे। तभी वो अंकल उठे और बोले अच्छा शर्मा जी, अब चलते है, (यही तो सुनना चाहते थे हम) । वो लोग जैसे ही ड्रॉइंग रूम से बाहर निकले तो साथ ही मम्मी पापा भी उन्हें सीऑफ करने गेट तक चले गए। उसके बाद बाहर क्या बातें हुई, हमें नहीं पता क्योंकि हम तो उस अटैक में लगे हुए थे, जिसके लिए इतनी देर से कवायद हो रही थी। मम्मी जैसे ही महमानों को छोड़ कर वापस आई तब तक नमकीन की प्लेट बड़ी दीदी के कब्जे में, मिठाई छोटी दीदी के और मैं और भाई सबसे छोटे थे, तो बस कुछ बिस्किट मुंह में और कुछ हाथ में दबा कर ही संतोष कर लिया था। मम्मी ने एक मीठी सी झिड़की दी और प्लेट में गलती से बचे कुछ बिस्किट और बाकी की खाली प्लेट लेकर बड़बड़ाती हुई अंदर चली गई।
           यह कोई पहली बार हुई घटना नहीं थी, इसलिए मम्मी का बड़बड़ाना और उसके बाद पापा का आकर हमारा पक्ष लेना,  हमारे लिए युनिवर्सल ट्रुथ जैसा हो गया था। ऐसा नहीं था कि घर में बिना मेहमानों के आए ऐसा कुछ खाने को नहीं मिलता था या फिर कोई और बात थी, लेकिन कहते हैं न कि दूसरे की थाली में घी हमेशा ज्यादा नजर आता है, बस हम भी कुछ वैसे ही थे। मन में हमेशा एक इच्छा रहती थी कि मेहमान हैं, इन्हें तो मम्मी स्पेशल ही देंगी।  ऐसा न जाने कितनी बार हुआ होगा कि घर आए गेस्ट कभी गेट तक भी नहीं पहुंचे और हम भाई बहन ने मिलकर सारा नाश्ता उड़ा लिया। क्योंकि वापस आते ही मम्मी का कहना तय था कि "चलो, सब उठा कर वापस रख दो, कोई न कोई आता रहता है काम आएगा।"  कई सालों से हम मेहमानों के नाश्ते की डकैती करते करते इतने एक्सपर्ट हो गए थे कि अब तो डर ही खत्म हो गया था। लेकिन उस दिन की घटना को चाहकर भी भुलाया नहीं जा सकता।
                 उस दिन भी कुछ ऐसा ही हुआ, मेहमान घर में आए हुए थे और घर से बाहर खेलते मैं और मेरा भाई यह भनक पड़ते ही घर वापस आ गए थे। देखा कि टेबल कुछ ज्यादा ही सजी हुई है। हमारी खुशी का ठिकाना हीं नहीं था, तभी वो पल आ ही  गया, जिसका हमें इंतजार था। "अच्छा तो अब हम चलते हैं, दीपा बेटे इधर आओ, बड़ी प्यारी बच्ची है" और कुछ ऐसा ही कह कर अंकल उठ कर चल दिए। अंकल गेट तक पहुंचे भी नहीं थे कि बड़ी दीदी ने मम्मी का डर दिखाते हुए मिठाई की प्लेट हथियाली थी। बड़ी दीदी के मुंह में मिठाई और हम सब हाथ और मुंह भर कर नमकीन निपटाने में लगे हुए थे। मेरे एक हाथ में सोनपपड़ी का पीस और मुंह में नमकीन भरी हुई थी क्योंकि जब चार लुटेरे खड़े हों, तो सामान छोड़ने का रिस्क कौन लेता। तभी अचानक वो अंकल वापस आ गए और उन्होंने हमें देखते ही कहा, "अरे मैं अपने स्कूटर की चाबी भूल गया था... "  हमारी हालत वो थी कि काटो तो खून नहीं। सामने साक्षात वहीं अंकल खड़े थे जिनके हिस्से का नाश्ता हम बुरी तरह मुंह में ठूंस कर खड़े थे और पीछे खड़ी मम्मी का चेहरा हमें अंकल के जाने के बाद की पूरी कहानी बता रहा था। दोनों दीदियां चुपचाप अंदर सरक ली। ऐसे में मुझे ही उन्हें इशारा कर के बताना पड़ा कि टेबल पर पड़े नमकीन के दानों के बीच आपकी चाबी है। उसी टेबल पर, जिसपर आपका नाश्ता भी था, वही नाश्ता जो इस वक्त हमारे मुंह में आधा भरा और थोड़ा हमारे हाथों में है। वहीं नाश्ता जिसके लिए आपके जाने के बाद आज मम्मी हमारी क्लास लेने वाली है। अंकल ने हमारी हालत जैसे भांप ली और वहीं खड़े होकर जोर से हंसने लगे। मम्मी की तरफ मुड़ कर बोले, बच्चे हैं और बच्चे तो सारे एक जैसे होते हैं। हमारे दोनों भी कम थोड़े ही हैं... और यही कहते हुए और मम्मी के गुस्से पर अपने बच्चों के भी ऐसे ही होने का मरहम लगाते हुए वह बाहर चले गए। थोड़ी देर तक मम्मी पापा और अंकल बाहर बात करते रहे, और हम चारों किसी तरह घर साफ कर, टीवी की आवाज एकदम कर कर, पढ़ने की एक्टिंग कर के मम्मी के गुस्से से बचने की कोशिश करने लगे। मम्मी अंदर आई लेकिन वैसा कुछ नहीं हुआ जिसके डर से हम भाई बहन मरे जा रहे थे। स्थिति धीरे धीरे खुद ब खुद सामान्य हो गई।
          लेकिन ऐसा नहीं है कि इस घटना के बाद हमने मेहमानों के हक वाले नाश्ते पर अटैक करना छोड़ दिया और हम सब बेहद शरीफ बन गए। हां, उस दिन के बाद से हमने सर्तकता की पॉलिसी आपना ली। उसके बाद जैसे ही कोई मेहमान उठ कर जाता तो हम चारों में से एक की ड्यूटी ड्रॉइंग रूम के गेट पर यह देखने की लगा दी जाती कि कहीं कोई वापस तो अपनी चाबी लेने नहीं आ रहा है...

4 comments:

  1. ....मंगलवार 22/032014 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
    आप भी एक नज़र देखें
    धन्यवाद .... आभार ....

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  2. हा हा, ऐसे छोड़ना भी नहीं चाहिये। छात्रावास में हमारे घर से कुछ भी आता था, पिताजी को बाहर तक छोड़कर आने के पहले दोस्त चट कर जाते थे सब।

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  3. मनोरंजक.....आभार ...धन्यवाद....

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  4. सही बात , आज भी आगे [बच्चे] देखकर पीछे [अपना बचपन] कि याद आ ही जाती है ,

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